My mother is great
🙏 आई🙏
*नाही उमगत " ती "*
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🌿काहीच बोलता न येणारी बाळं
बोलायला शिकतात
बोलायला शिकवलेल्या आईला
कधी कधी खूप खूप बोलतात🌿
🌿मान्य आहे पहिला संघर्ष
आईशीच असतो
बोलताना , तिच्या भावनांचा अर्थ
समजून का घ्यायचा नसतो ?🌿
🌿नको म्हणा , रागवा , तिरस्कार करा
हवे तसे बोला , मस्करी करा
ती कायम तुमच्या पाठीशीच असते
कारण ती वेडी असते🌿
🌿नाही जेवला , अभ्यास नाही केला
लवकर नाही उठला , नाराज दिसला
सतत विचारपूस करत राहते
कारण ती वेडी असते🌿
🌿तुम्हाला रागावते पण तीच रडते
मोठे व्हावे तुम्ही म्हणून सतत झटते
स्वतःला विसरते , तुमच्या विश्वात रमते
कारण ती वेडी असते🌿
🌿जिंकलात तर ओल्या डोळ्यांनी हसते
हरला तर खंबीर बनवते
तुम्ही असाल कसेही , जीवापाड जपते
कारण ती वेडी असते🌿
🌿ती नाही कळणार , नाही उमगणार
तीच्यामुळे आपण काहीसे घडलो
हे आज नाहीच आपल्याला पटणार
कारण ती वेडीच वाटणार🌿
🌿खरं तर ती वेडी नसतेच कधी
मातृत्वाची जबाबदारी पेलत पेलत
स्वतःला ही नव्यानं फुलवत असते
स्वप्नातील दिवस तुमचे
वास्तव स्वीकारुन बघत असते
कारण ती "आई "असते🌿
🌿ती उमगू लागते तेव्हा आपण
मागे जाऊ शकत नसतो...
ती असेपर्यंत थोडीशी समजली तरी
यासारखा खरा आनंद नसतो,,,🌿
🙏🙏आई समर्पित🙏🙏🙏
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ReplyDelete‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
Deleteत्वमेव विद्या च द्रविणम त्वमेव, त्वमेव सर्वमम देव देवः।।’
वेदों में ‘माँ’ को ‘अंबा’, ‘अम्बिका’, ‘दुर्गा’, ‘देवी’, ‘सरस्वती’, ‘शक्ति’, ‘ज्योति’, ‘पृथ्वी’ आदि नामों से संबोधित किया गया है। इसके अलावा ‘माँ’ को ‘माता’, ‘मात’, ‘मातृ’, ‘अम्मा’, ‘अम्मी’, ‘जननी’, ‘जन्मदात्री’, ‘जीवनदायिनी’, ‘जनयत्री’, ‘धात्री’, ‘प्रसू’ आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है।
ऋग्वेद में ‘माँ’ की महिमा का यशोगान कुछ इस प्रकार से किया गया है, ‘हे उषा के समान प्राणदायिनी माँ ! हमें महान सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करो। तुम हमें नियम-परायण बनाओं। हमें यश और अद्धत ऐश्वर्य प्रदान करो।’
सामवेद में एक प्रेरणादायक मंत्र मिलता है, जिसका अभिप्राय है, ‘हे जिज्ञासु पुत्र! तू माता की आज्ञा का पालन कर, अपने दुराचरण से माता को कष्ट मत दे। अपनी माता को अपने समीप रख, मन को शुद्ध कर और आचरण की ज्योति को प्रकाशित कर।’
प्राचीन ग्रन्थों में कई औषधियों के अनुपम गुणों की तुलना ‘माँ’ से की गई है। एक प्राचीन ग्रन्थ में आंवला को ‘शिवा’ (कल्याणकारी), ‘वयस्था’ (अवस्था को बनाए रखने वाला) और ‘धात्री’ (माता के समान रक्षा करने वाला) कहा गया है। राजा बल्लभ निघन्टु ने भी एक जगह ‘हरीतकी’ (हरड़) के गुणों की तुलना ‘माँ’ से कुछ इस प्रकार की है:
‘यस्य माता गृहे नास्ति, तस्य माता हरितकी।’
(अर्थात, हरीतकी (हरड़) मनुष्यों की माता के समान हित करने वाली होती है।)
श्रीमदभागवत पुराण में उल्लेख मिलता है कि ‘माताओं की सेवा से मिला आशिष, सात जन्मों के कष्टों व पापांे को भी दूर करता है और उसकी भावनात्मक शक्ति संतान के लिए सुरक्षा का कवच का काम करती है।’ इसके साथ ही श्रीमदभागवत में कहा गया है कि ‘माँ’ बच्चे की प्रथम गुरू होती है।‘
रामायण में श्रीराम अपने श्रीमुख से ‘माँ’ को स्वर्ग से भी बढ़कर मानते हैं। वे कहते हैं कि:
‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदपि गरीयसी।’
(अर्थात, जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।)
महाभारत में जब यक्ष धर्मराज युधिष्ठर से सवाल करते हैं कि ‘भूमि से भारी कौन?’ तब युधिष्ठर जवाब देते हैं:
‘माता गुरूतरा भूमेः।’
(अर्थात, माता इस भूमि से कहीं अधिक भारी होती हैं।)
महाभारत में अनुशासन पर्व में पितामह भीष्म कहते हैं कि ‘भूमि के समान कोई दान नहीं, माता के समान कोई गुरू नहीं, सत्य के समान कोई धर्म नहीं और दान के समान को पुण्य नहीं है।’
इसके साथ ही महाभारत महाकाव्य के रचियता महर्षि वेदव्यास ने ‘माँ’ के बारे में लिखा है कि:
‘नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राण, नास्ति मातृसमा प्रिया।।’
(अर्थात, माता के समान कोई छाया नहीं है, माता के समान कोई सहारा नहीं है। माता के समान कोई रक्षक नहीं है और माता के समान कोई प्रिय चीज नहीं है।)
तैतरीय उपनिषद में ‘माँ’ के बारे में इस प्रकार उल्लेख मिलता है:
‘मातृ देवो भवः।’
(अर्थात, माता देवताओं से भी बढ़कर होती है।)
संतो का भी स्पष्ट मानना है कि ‘माँ’ के चरणों में स्वर्ग होता है।’ आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपनी कालजयी रचना ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के प्रारंभिक चरण में ‘शतपथ ब्राहा्रण’ की इस सूक्ति का उल्लेख कुछ इस प्रकार किया है:
‘अथ शिक्षा प्रवक्ष्यामः
मातृमान् पितृमानाचार्यवान पुरूषो वेदः।’
(अर्थात, जब तीन उत्तम शिक्षा अर्थात एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य हो तो तभी मनुष्य ज्ञानवान होगा।)
‘माँ’ के गुणों का उल्लेख करते हुए आगे कहा गया है कि:
‘प्रशस्ता धार्मिकी विदुषी माता विद्यते यस्य स मातृमान।’
(अर्थात, धन्य वह माता है जो गर्भावान से लेकर, जब तक पूरी विद्या न हो, तब तक सुशीलता का उपदेश करे।)
‘चाणक्य-नीति’ के प्रथम अध्याय में भी ‘माँ’ की महिमा का बखूबी उल्लेख मिलता है। यथा:
‘रजतिम ओ गुरू तिय मित्रतियाहू जान।
निज माता और सासु ये, पाँचों मातृ समान।।’
(अर्थात, जिस प्रकार संसार में पाँच प्रकार के पिता होते हैं, उसी प्रकार पाँच प्रकार की माँ होती हैं। जैसे, राजा की पत्नी, गुरू की पत्नी, मित्र की पत्नी, अपनी स्त्री की माता और अपनी मूल जननी माता।)
‘चाणक्य नीति’ में कौटिल्य स्पष्ट रूप से कहते हैं कि, ‘माता के समान कोई देवता नहीं है। ‘माँ’ परम देवी होती है।’
महर्षि मनु ने ‘माँ’ का यशोगान इस प्रकार किया है:
‘दस उपाध्यायों के बराबर एक आचार्य होता है। सौ आचार्यों के बराबर एक पिता होता है और एक हजार पिताओं से अधिक गौरवपूर्ण ‘माँ’ होती है।’
मातृदिवस पर माँ को नमन ।��������
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